Friday, April 29, 2011

एक कच्चे धागे पर निरंतर वो चलता है




एक  कच्चे धागे पर 
निरंतर वो चलता  है 

दीवाना है ,अपने 
साहस को परखता है 

एक छोर पर 
दिया का बंधन 

एक छोर पर 
गुफा है गहन  

पर वो दूर 
एक लौ से प्रेरित

बढ़ता है 
उस धागे पर नित 

अनभिज्ञ है 
उसकी ज्वाला से वो 

डोर का दहन भी 
करेगी एक दिन जो 

पर चलना है 
चलता ही जाता है 

उस लौ से 
संबल पाता है 

मन का पंछी 
धीरे धीरे 
बस आगे 
बढ़ता  जाता है ...

अन्धकार से 
प्रकाश को 

दीपक से 
मिलने की आस को 

वो दीवाना 
सपनो के डोर पर 

एक छोर से
दूजे छोर पर 

बस आगे 
बढ़ता जाता है 

मन का पंछी 
धीरे धीरे 
बस आगे 
बढ़ते जाता है .



5 comments:

  1. बढते जाना ही सकारात्मकता की निशानी है ..सुन्दर अभिव्यक्ति

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  2. चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 03- 05 - 2011
    को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..

    http://charchamanch.blogspot.com/

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  3. जीवन के सफ़र सा ही तो हुआ डोर पर चलना भी ...
    जाने कहाँ गिरे , कहाँ सम्भले ...संतुलन बनाये रखना होता है जीवन में भी !
    अच्छी रचना !

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  4. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।

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  5. बहुत सकारात्मक सोच..बहुत सुन्दर प्रस्तुति

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