Tuesday, May 10, 2011

नाच !







थिरकते हैं
मेरे अन्दर
तेरे अधरों से निकले

वो
अन्तिम मिलन के
कुछ
मीठे बोल ,

भरते हैं वो
मेरे
बेजान परे इन पाँव में
जान,

बन जाती है
तब अचानक
तू ही
मेरी पहचान ,

और
थिरकने लगता हूँ तब
मैं बन जाता हूँ एक आगाज़,

तेरे वियोग में
नाच लूं
एक बार फिर आज !

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(SOME MODIFICATIONS BY A FRIEND)
थिरकते हैं
अन्दर मेरे
तेरे अधरों से निकले
अन्तिम मिलन के
वो मीठे बोल ,

भर देते हैं
मेरे बेजान पड़े
पांवों में प्राण
बन जाती है
अचानक तू
मेरी ही पहचान ,

और
लगता हूँ
थिरकने तब ,
घटित होता है
एक तांडव
तेरे वियोग में..

नाच लूं क्यों ना
आज
एक बार फिर ! 

..निशांत  

2 comments:

  1. shiv nritya yun hi nahin hota ... wah abhivyakti ki charam seema hai... aur viyog ki yah seema is nritya mein arthwaan ho uthi hai

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  2. बेहतरीन शब्दांकन, नृत्य को प्रेम से जोड़ने की कवायत अच्छी लगी बधाई

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