Thursday, May 19, 2011

धुप-छाँव

धुप  एक  शाश्वत  रूप  है  
इस  कुदरत   की   शक्ति  का ,


जिस  समय   अँधेरा  हमें  उसको  याद  करने  पर  विवश  करता    है 
उस  समय    वो  कहीं  और  अपने  प्रेम  को  लुटा  रही  होती  है .....
ये  उसकी   विराटता   है,


धुप  और  छाँव साथ  चलते  हैं ,
बस   दो    बार  मिलते   हैं  अपने पूर्ण रूप में  ,
एक  बार    दुःख  के  समय  और  एक  बार   सुख   के   समय  ,


अथार्थ एक बार सूर्योदय के समय और एक बार सूर्यास्त के समय ,
यहाँ सूर्योदय के पहले की दशा को छाँव और बाद की दशा को धुप कहा गया है ...जो सूर्यास्त होने तक चलता है ,


नदी जो की हमेशा चलती रहती है इस जीवन की तरह ...सागर के तलाश में 
इस धुप में खिलती है 
और बादल को भेजती है छाँव   बनकर कभी -कभी जब धुप अपने ताप से जीवन को असंतुलित करती है ...
अतः छाँव  पूर्ण रूपें नष्ट नहीं होती ,

नदी जो हमेशा बहती रहती है ...
बादलों को छाँव  के रूप में भेज देती है ..
या फिर हम बोल सकते हैं  कि  धुप   अपने को सिमित कर छाँव का निर्माणकरती  है ....
बादलों को माध्यम बनाकर ,


हम   धुप और छाँव  अर्थार्थ यहाँ रात और दिन के 
विराट अवश्यम्भावी मिलन ,एक बार सूर्योदय के समय 
और 
एक बार सूर्यास्त के समय   को दुःख  समझे  या  सुख
ये हमारे अंतर्मन पर निर्भर करता है 
जहाँ  रोज़  सवेरा  ..अँधेरा  होते  रहता  है ,

और मन की नदी बहती रहती है ....
दुःख के ताप से वो आत्मशक्ति के बादल को प्रकट कर ..जीवन को संतुलित रखती है ...

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