Thursday, May 26, 2011

कांच के टुकरे

छोटे -छोटे
कांच के टुकड़े छोड़ कर
आया हूँ
रेत पर
लहरों से खेलते हुए ,

चमकते थे वो
जब
तब तुम्हारी
आँखों की खुशियाँ देख लेता था ,

एक बार फिर
उन्हें रेत से चुन
लाने को जाता हूँ ,

ढूँढने में
चोट तो लगेगी
पर
उन लहरों में खोयी मेरी
करुण पुकार
और
उस रौशनी
से चमकते वो
कांच के टुकरे ,

मेरे सभी दर्दों को
हर लेंगे
तुम्हारे उस
मूक परित्याग
का स्मरण करा कर मुझे ,

जब तुम्हारे उस परित्याग पर
मेरे मौन
स्वीकृति को
शायद तुमने
न समझा हो ....

ये बहते रुधिर आज
उस पल के साक्षी होंगे
जब ह्रदय पिघल कर
उस दिन बह गया था
तेरे लिए ....

शायद ये प्रेम भी कांच ही है !


     









4 comments:

  1. छोटे -छोटे
    कांच के टुकरे छोड़ कर
    आया हूँ
    रेत पर
    लहरों से खेलते हुए ,

    चमकते थे वो
    जब
    तब तुम्हारी
    आँखों की खुशियाँ देख लेता था ,
    adbhut

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  2. अप्रचलित प्रतीकों से लैश आपकी कविता ध्यान खीचने में सफल बढ़ायी निलेश जी

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  3. ये बहते रुधिर आज
    उस पल के साक्षी होंगे
    जब ह्रदय पिघल कर
    उस दिन बह गया था
    तेरे लिए ....

    बहुत खूब लिखते हैं आप.
    दिल को छू रही है आपकी रचना.

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