Saturday, June 25, 2011

ये कैसी ख़ामोशी है ...

ये  कैसी  ख़ामोशी   है ....  


कभी   देखा    है  तूफ़ान  के  पहले   की  ख़ामोशी .....




कहीं पौधों को काटकर बनाये हुए कंक्रीट के शहर हैं तो 
कहीं  नदियाँ के पानी को रोका गया है निरर्थक बाँधों  से ...


पर आज उन घरों में दुबके लोग डरे हुए हैं इस तूफ़ान से कि इसकी नीव  न हिल जाए कहीं ....
पौधे होते तो इस तूफ़ान की गति को क्षीण कर स्वयं थपेरों को सहते हुए उनकी रक्षा कर लेते शायद ......


पर जब सच को दबाया  जाता है 
तब  अन्दर ही अन्दर एक ज्वाला जलती है 
और जिस दिन अति हो जाती है प्रपंचो और झूठे खेल की 
तो सब एक हो कर आक्रमण करते हैं ज्वालामुखी बनकर  
जिससे झूठ की प्रकृति में छुपे हुए  झूठे चेहरे झुलस जाते हैं .....
शायद इसी को क्रान्ति कहते हैं ....

1 comment:

मेरी जुस्तजू पर और सितम नहीं करिए अब

मेरी जुस्तजू पर और सितम नहीं करिए अब बहुत चला सफ़र में,ज़रा आप भी चलिए अब  आसमानी उजाले में खो कर रूह से दूर न हो चलिए ,दिल के गलियारे में ...