Wednesday, June 6, 2012

जिस्म का बोझ उठाएगा कब तक

तू  खुद  को बहलायेगा कब तक
मखमली ख्वाब सजाएगा कब तक

जब नीब हिल गयी है इमारत की
तू मंजिलें ऊँची बनाएगा कब तक

सरहद है वहाँ ,जहां पे गुलशन थे
कोई फौजी घर अपने जाएगा कब तक

वो कश्ती न कर दे नीलाम कहीं
तू लहरों से दूर जाएगा कब तक

नकाबपोशों से आइना कह रहा है
तू मुझे आजमाएगा कब तक

रूह को जान ले मुसाफिर अपने
जिस्म का बोझ उठाएगा कब तक 

4 comments:

  1. प्रभावित करती रचना .

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  2. वाह....
    नकाबपोशों से आइना कह रहा है
    तू मुझे आजमाएगा कब तक

    बेहतरीन गज़ल.

    अनु

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  3. जब नीब हिल गयी है इमारत की
    तू मंजिलें ऊँची बनाएगा कब तक

    .....बहुत खूब! बहुत उम्दा गज़ल...

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  4. sushma ji,anu ji ,kailaash ji aapke sneh ke liye bahut aabhaari hoon

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