Saturday, April 6, 2013

फुर्सत के दिन चार ढूँढे ना मिले

 


फुर्सत के दिन चार ढूँढे ना मिले
सहरा में कभी बहार ढूँढे ना मिले

बचपन तो अब भी दिख जाए लेकिन
बचपन के वो यार ढूँढे ना मिले

खबरों की बाजारी होती रहती है
पर सच्चे अखबार ढूँढे ना मिले

तब सड़क के दोनों और दीखते थे दरख़्त
अब उनके कोई कतार ढूँढे ना मिले

मकतब में दानिश हमको लेनी थी
ढूँढा कई कई बार ढूँढे ना मिले

हम करते किसका इन्तिखाब यारों
अच्छे उम्मीदवार ढूँढे ना मिले

माना हैं अज़ीज़ बहुत कम अपने यारों
शहरों में अगयार ढूँढे ना मिले

ग़ालिब,मीर-ओ-फैज़ लिख गए अपने शेर
फिर वैसे कुछ असरार ढूंढें न मिले

"नील" ने मकाँ किया दीवान को अब तक
इस घर में दीवार ढूँढे ना मिले


***
सहरा :desert
दरख़्त :tree
मकतब :school
दानिश :knowledge
इन्तिखाब :choice
अगयार :rivals
शेर :couplet
असरार :couplets
दीवान :collection of poems

6 comments:

  1. बहुत धन्यवाद आपका श्री राम जी

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  2. तब सड़क के दोनों और दीखते थे दरख़्त
    अब उनके कोई कतार ढूँढे ना मिले ..

    सच लखा है ... ज़माना बदल स गया है ... मानव की भोख निगल गई है इन्हें ..
    सभी शेर लाजवाब हैं ...

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  3. बहुत धन्यवाद दिगम्बर जी ,आभार अशोक जी

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  4. बहुत आभार आशा जी

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