Saturday, February 22, 2014

आज कुछ हर्फों में

बारहा खुद से तुम न युहीं लड़ो यारों 
इक दफा खुद की भी बात तो सुन लो यारों 

जिस तरफ कोई शख्स भी नहीं जाता ,
उस तरफ मुझको, आज ,ले चलो यारों 

या तो महफ़िल मे चुप यूँहीं रहने दो ,
और बस तुम ही तुम, गुफ्तगू करो यारों 

बस कि कुछ देर सही दूर उन लहरों से 
तन्हा साहिल पे भी, आज तुम रुको यारों

दौर कैसा भी हो ,बस यही कोशिश थी
कोई रुसवा हमसे न कभी भी हो यारों

जो जुबाँ से कभी कह सका नहीं शायर
आज कुछ हर्फों में ढूँढ कर पढ़ो यारों

ख्वाब तो देखो तुम "नील" आँखों से मगर
राह चलते चलते न ख्वाइशें कहो यारों

5 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (24-02-2014) को "खूबसूरत सफ़र" (चर्चा मंच-1533) पर भी होगी!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. भावो को खुबसूरत शब्द दिए है अपने...

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  3. वाह .. सुन्दर शेरो से सजी लाजवाब गज़ल ...

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  4. 'जो जुबाँ से कभी कह सका नहीं शायर
    आज कुछ हर्फों में ढूँढ कर पढ़ो यारों'
    - शायर कह न पाया हो चाहे ,कुछ हर्फ़ बहुत कुछ कह देते हैं.

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  5. Bahut aabhaar mayank daa
    Dhanyvaad digambar ji,pratibha ji,sushma ji

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