Sunday, May 8, 2016

एक  ही लम्हा

बुलबुला पानी का दिखा रहा था वो ,
ऎसे मेरा बोझ उठा रहा था वो

भूलना भी इत्तेफ़ाक़ नहीं है जी ,
ईद का चाँद यूँ  ,बता रहा था वो

वो मिला ,जान कर कि कैसे मिलना है
फिर भरम का ही पता,बता रहा था वो

एक  ही लम्हा मगर घर को जा रहा था मैं ,
एक ही मंजिल लिए घर से आ रहा था वो

कल तो ऐसा था कि बराबर लगता था ,
आज पर्वत सा नज़र ,आ रहा था वो

एक शायर न तो बहरा है न तो गूंगा है ,
फिर से इक नज़्म ही ,सुना रहा था वो

या तो लब से नहीं कह सकता "नील "
या तो आँखों में कुछ ,छुपा रहा था वो

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