अपने अंतर के सभी निश्छल भावों को
दबा लेना चाहता था उस दिन ,
अपने वीरान मन के एक कोने में
जहाँ तुझे रोज़ देख सकूं
तुझसे बातें कर सकूं ,
कुछ परिस्थितियाँ ऐसी थी जिसका
मैं भी खंडन करूँगा एकदम निष्पक्ष होकर
क्योंकि मैंने तुझसे नहीं
तेरे भावना ,तेरे अंतर्मन ,तेरे स्वाभाव से प्रेम किया था ,
मैं शायद उन परिस्थितियों के उपरान्त
हुए परिणाम से अनिभिज्ञ था
पर अब जब बहुत देर हो चुकी है
और
तुम्हारे मन में मेरे लिए एक
आकृति, एक व्यक्तित्व का निर्माण हो चूका होगा ...
जिसकी कल्पना मैं नहीं करना चाहता
पर काल बारम्बार स्मरण करा देता है ,
तब मैं विवश हो जाता हूँ
और फिर पहली मुलाक़ात का स्मरण करने लगता हूँ
जब न तुम हमें जानते थे न हम तुम्हे ,
ठीक पानी और उसमे मिलने वाली चीनी की तरह ....
जो अगर अच्छे से मिलती है तो मिठास उत्पन्न करती है ...
इसी प्रकार प्रेम भी है....तुम चीनी की जैसा आई थी ,
और बोली थी मेरा नाम लेकर ,ये मेरे संग है ...
लगा की मेरे मुख की बातों को तुमने अपना अधर दे दिया हो,
शायद प्रभु को ये ही मंज़ूर हो ..
और पहली मुलाक़ात पर प्रभु ने
मेरी आत्मा की आवाज़ को सुन लिया हो ...
कहते हैं ..अगर किसी से प्रेम करो तो प्रभु आते हैं .....
ये तो प्रेम करने वाले जाने ...
क़ि ये महज़ संयोग है या उस परमात्मा की विराट लीला ,
और वो पहली मुलाक़ात ही काफी है प्रिये ! मेरे लिए ,
चाहे तुम कितने भी दूर रहो
कितनी भी परिस्थितियाँ बदले ..
वो पहली निश्चल मुलाक़ात की विराटता को नहीं बदल सकती,
वो ही मेरी शक्तिपुंज है...
वो ही मेरी प्रेम की गंगा है...
और वो ही मेरा मोक्ष का सागर ,
इसे तुम मेरी नियति कह सकती हो...
पर मैं इसे उस प्रभु की कृपा मात्र मानता हूँ
क़ि हमारी वो पहली मुलाक़ात हुई
जो जीवनदायनी है ...इस अनारी के लिए,
कितना अपनापन था उस पहली मुलाक़ात में,
कितनी भी परिस्थितिया ,मनमुटाव या विरह ...
उसकी महानता को नहीं हर सकते हैं ,
वो आज भी शास्वत है...
एक अमर प्रेम के जैसा ....
एक अक्षय शक्तिपुंज इस अनारी के लिए....
"नीलांश"