Friday, May 13, 2011

तुम्हारा प्रेम मेरे लिए !


                 
तुम्हारा  प्रेम 
उस किताब के पन्नो जैसा है 
जो 
अलग होते जाते हैं 
क्रमश एक दुसरे से 
पढने के क्रम में 

पर भरते जाते हैं 
दो अक्षर जीवन को जीने  के 
अपने पाठकों के मन 
में ...

तुम्हारा  प्रेम 
उस
किताब के पन्नो जैसा है
जो तिरस्कृत 
होने के बाद भी 
आपस में जुड़े रहते हैं ...
और 
बताते हैं कि
ज़मीन से जुड़े  रहो 
हर मुसाफिर को ...

तुम्हारा  प्रेम 
उस खाली
कापी के जैसा है 
जो 
अपने न भरने 
तक मेरे कलम के 
स्याह के उन्मुक्त बौछारें 
और 
उसके 
नीब के चोटों को 
सहता रहता है ....

और फिर उस कलम को 
बिना बोले मान दिलाता है ...

तुम्हारा प्रेम 
उस शहद के जैसा है
जो 
मधुमक्खी को पहचान देती है
उसके उद्यम के कारण
उसके सदभाव के कारण
न क़ि
उसके दर्द देने वाले डंक के कारण ...


Thursday, May 5, 2011

अभिनय करते हैं मेरे शब्द

अभिनय करते हैं मेरे शब्द
भावों के निर्देशन पर 
वक्ता स्वयं और द्रष्टा स्वयं 
बनता हूँ मैं मंथन कर कर 

अंतर्ध्वनि को काले अक्षर 
में कह जाता हूँ 
शीतलता गंगाजल सी 
मैं अर्पण करता जाता हूँ 

अभिमत होता हूँ इनसे
ये मेरे मन के वशंज हैं 
कष्टों के इस सर में 
वो खिलते एक पंकज हैं 

उनके आकर्षण से 
शब्द बादल बन बरसते हैं 
मन की घाटी से तब 
शब्दों के धार निकलते हैं 

ये शब्द एक दर्पण हैं 
जो निज से सबको मिलाता है 
उनके अस्तित्व का 
ये दर्शन उन्हें कराता है 

इसके बंधन में बंधने से
हर बंधन छूट जाता है 
हर मन फिर इन शब्दों का 
एक पावन मंदिर बन जाता है 

हर मन फिर इन शब्दों का 
एक पावन मंदिर बन जाता है 

दिनकर

उसके गीतों के ज्वाला ने लोहा तक पिघलाया था 
सोये भारत मन में भी एक नवसंचार जगाया था  
उसके कलम में वीरों के शहादत  का प्रतिशोध था 
भारत माता के दुश्मन को थर्राने का क्रोध था 

आंच तिरंगे की रखने को उनके शब्द बेताब थे 
गिरिवन के सिंहों के जैसे करते वो सिंहनाद थे 
हिंदी-साहित्य   का वो एक अमूल्य वरदान था 
क्रान्ति का अग्रदूत और भारत का  शान था 

उसने बिन बोले ही तब जवानों  को हर्षाया था 
उनके धमनियों  में  एक  सैलाब  सा  लाया  था 
माथे पर कोई सिकन नहीं कदमो में तब जान थे 
उसके लेखन में बस  क्रान्ति  के फरमान थे 

उनके सानिध्य में सोना कुंदन बन जाता था 
हर पन्ना उनका तब बलिदानी गीत गाता था 
बिन कटार के ही वो कलम का सिपाही था 
क्रान्ति के पथ पर वो निर्भय एक राही था 

उसके गीतों से संप्रभुता के स्वर निकलते थे 
गद्दारों के अरमानो पर बादल   बन बरसते थे 
वो इस  हिंद देश के कवियों का स्वाभिमान था 
शब्दों के उस मंदिर का "दिनकर" ही नाम था 


...










Wednesday, May 4, 2011

और भेंट हो गयी मेरे जड़ का मेरे चेतन से...





एक टूटते तारे सी
आई और गयी
वो
पतझड़ जैसे,
छोड़कर
लाखों सवाल
हर तरफ,
कर के सूना
मेरी यादों के वृक्ष को
सींचा था जिसे
मैंने
अश्कों से अपने,
लहलहाने
उसके जवाबों के
हरे भरे पत्तों को..

उम्मीद थी
वो आएगी
एक वसंत बनकर
मेरे पीले पड़े हुए
पत्तों को रंगनें
अपने हरे रंग में

नहीं पता था
मुझको
उसे तो था प्रेम
मेरी जड़ों से
मेरे पत्तों से नहीं
और वो
मेरे यादों के वृक्ष को
झकझोर कर
मेरे जड़ के
पोषण हेतु
भेंट कर गयी
मेरे ही कुछ पुराने पत्तों को

और हो गयी भेंट
मेरी जड़ की
चेतन से मेरे...

नदियों का विस्तार तो देख

सागर से मिलने से पहले नदियों का विस्तार तो देख,  मिट जाने से पहले अपने होने का आधार तो देख  कुदरत है आँखों के आगे, कुदरत है मन के भीतर  भूल ...