भावों के निर्देशन पर
वक्ता स्वयं और द्रष्टा स्वयं
बनता हूँ मैं मंथन कर कर
अंतर्ध्वनि को काले अक्षर
में कह जाता हूँ
शीतलता गंगाजल सी
मैं अर्पण करता जाता हूँ
अभिमत होता हूँ इनसे
ये मेरे मन के वशंज हैं
कष्टों के इस सर में
वो खिलते एक पंकज हैं
उनके आकर्षण से
शब्द बादल बन बरसते हैं
मन की घाटी से तब
शब्दों के धार निकलते हैं
ये शब्द एक दर्पण हैं
जो निज से सबको मिलाता है
उनके अस्तित्व का
ये दर्शन उन्हें कराता है
इसके बंधन में बंधने से
हर बंधन छूट जाता है
हर मन फिर इन शब्दों का
एक पावन मंदिर बन जाता है
हर मन फिर इन शब्दों का
एक पावन मंदिर बन जाता है
बहुत सुंदर ... सच में शब्द दर्पण समान ही होते हैं....सार्थक पंक्तियाँ
ReplyDeleteshabd yadi abhinay n karen to jivan ke rangmanch per kuch nahi rah jayega
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