एक टूटते तारे सी
आई और गयी
वो
पतझड़ जैसे,
छोड़कर
लाखों सवाल
हर तरफ,
कर के सूना
मेरी यादों के वृक्ष को
सींचा था जिसे
मैंने
अश्कों से अपने,
लहलहाने
उसके जवाबों के
हरे भरे पत्तों को..
उम्मीद थी
वो आएगी
एक वसंत बनकर
मेरे पीले पड़े हुए
पत्तों को रंगनें
अपने हरे रंग में
नहीं पता था
मुझको
उसे तो था प्रेम
मेरी जड़ों से
मेरे पत्तों से नहीं
और वो
मेरे यादों के वृक्ष को
झकझोर कर
मेरे जड़ के
पोषण हेतु
भेंट कर गयी
मेरे ही कुछ पुराने पत्तों को
और हो गयी भेंट
मेरी जड़ की
चेतन से मेरे...
प्रभावित करती है प्रवाहमयी सोच की अभिव्यक्ति ......बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteआपका बहुत आभार..
ReplyDeleteaapka bahut aabhar manpreet ji
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