Thursday, June 1, 2017

और क्या नाम दूं इस मंज़र को

















जब  तक  रहे  



किसी  का  इंतज़ार  आँखों  में
और  रहे  एक  पुकार  
खुद  की  साँसों  में
तब  तक  ही   ज़िन्दगी  
ज़िन्दगी  कहलाती   है
वरना  क्या  रखा  है 
फजूल  की  बातों  में ...

जो  तुम  नहीं  थे  
तो  तेरी  जुदाई  संग  थी
बेपरवाह  ज़माने  में  
मेरी  खुदाई  संग  थी
और  क्या  नाम  दूं   
इस  मंज़र   को
प्यार  ही  तो  है  
जो  जागता  है  सुनी  रातों  में ...

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (04-06-2017) को
    "प्रश्न खड़ा लाचार" (चर्चा अंक-2640)
    पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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