खुद जला,उनको जलाया,देर तक
बादलों से इश्क जो वो कर गया
गम की बारिश में नहाया, देर तक
मयकदे में भी उन्ही का शोर है
ये सुना तो, पि ना पाया, देर तक
लोग न कहीं दोष दें उनको कभी
इसलिए आंसू छुपाया ,देर तक
जिस्म क्या,कफ़न भी तब बिक गए
जब उसने , मातम मनाया ,देर तक
चकोर कब कहता है ये चाँद से
तू अमावस में न आया देर तक
वो न मिल जाएँ कहीं फिर ख्वाब में
इसलिए खुद को जगाया, देर तक
आंधियां कब पूछती हैं शाख से
फल को तुने क्यूँ पकाया, देर तक
नील की ग़ज़लों में उनका राग है
साथ उसने यूँ निभाया ,देर तक
बहुत ही उम्दा ग़ज़ल....
ReplyDeleteबहुत ख़ूबसूरत गज़ल..
ReplyDeleteजबरदस्त लिखा है भई...
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