Wednesday, December 19, 2012

जीना, थोडा ही सा मगर, आसान बन जाए


करो ऐसा कि रब खुद ही मेहरबान बन जाए 
पानी पे भी नक्शा या कोई निशान बन जाए 

हाँ बनता है अगर पत्थर तो भगवान बन जाए 
मगर पहले नमाज़ी एक इंसान बन जाए !

बने एक घर जहाँ कुछ साँस , तो मैं ले पाऊं 
तमन्ना ये कहाँ बस ईंट की मकान बन जाए 

बचे कुछ तो दिये , आँधियों में, खाख होने से 
कि जीना, थोडा ही सा मगर, आसान बन जाए

तमाशबीन क्यूँ हो गए हैं ,अब शहर के लोग
कहीं ऐसा न हो ,बस्ती यहाँ शमशान बन जाए ?

कभी उसकी उम्मीदी पर नहीं छोड़ो युहीं चलना
न जाने वक़्त, कब किस मोड़ पे ,बेईमान बन जाए

मिलाओगे दगा को दोस्ती में तो ये मुमकिन है
नफे नुकसान की ही ये नयी दूकान बन जाए

कई हर्फों से भी कोई मुकम्मल नज़्म न बनी
तेरा बस नाम लिख देने से दीवान बन जाए

है मुल्क में कितने ही रंग - रूप और भाषा
सब मिल जाएँ ,एक प्यारा, हिन्दुस्तान बन जाए

अभी इन बंदिशों में हैं कमी लेकिन भरोसा है
कि ये अंदाज़ ही कल "नील" की पहचान बन जाए 

Sunday, December 16, 2012

फिर रहे हो किस किस दयार में


जीत में खुशखबर और ग़म हार में 
ज़िन्दगी यूँ ही कटती है बाज़ार में 

कुछ तो था ही असर उनके गुफ्तार में 
देर तक जो रहा कूचा -ए -यार में 

जिनके आने की उम्मीद भी न रही 
उसको क्यों ढूंढते हो अखबार में 

हम को भी है ,तेरे फन पे, ऐतबार 
तुम भी हँसते रहो अपने किरदार में 

वो अदा ,वो सदा और वो बाकपन 
दब गयी होंगी माजी के दीवार में 

एक ख़त ही तो है और कुछ भी नहीं 
पर ख़ुशी छा गयी देखो घर बार में 

आ के साहिल पे मांझी नहीं सोचता 
कितनी आई खरोंचें पतवार में 

क़त्ल होता नहीं शेख मेरा वजूद 
जंग लग गयी क्या ,तेरी तलवार में ?

हो जहाँ तुम वहाँ पे जला लो दिये 
फिर रहे हो किस किस दयार में 

या दवा कर दे कोई मुकम्मल खुदा
या नज़र फेर ले मुझसे इक बार में 

आपने न पढ़ा ,आपने न सुना 
खामियां रह गयी होंगी अशरार में

अभी करने है मुझको बहुत काम "नील"
अभी दो दिन बचे हैं जो इतबार में 


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गुफ्तार:speech 
कूचा :place 
माजी :past 
सदा:sound 
दयार:country ,region 
अशरार:couplets

Monday, December 3, 2012

वो कौन ऊपर बैठ कर मौसम बनाता है



बेचैन  साँसों को  कोई  सरगम बनाता है 
मेरे तन्हाई को ही मेरा हमदम बनाता है 

किसका होना उसे  मुसल्लम बनाता है  
किसका नहीं होना उसे बेदम बनाता है  

है  वही चारागर गुरबत्त  के मारो का 
जो दर्द को पी कर  मरहम बनाता है 

इंसान   को ही झेलने परते हैं हर लम्हे 
वो कौन ऊपर बैठ कर मौसम बनाता है 

दुश्मनी, रंजिश, जंग का सबब खंजर 
इंसान को इंसान तो कलम बनाता है 

खाख में मिट जाती है हर चीज़ दोस्तों 
ये  अना  इंसान को अदम  बनाता है 

वाजिब जवाब कोई  मिलता नहीं मगर 
कौन पहेलियों मे पेच-ओ-ख़म बनाता है 
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मुसल्लम :complete 
अना :ego 
अदम :nothing 
पेच-ओ-ख़म:complexity 

मेरी जुस्तजू पर और सितम नहीं करिए अब

मेरी जुस्तजू पर और सितम नहीं करिए अब बहुत चला सफ़र में,ज़रा आप भी चलिए अब  आसमानी उजाले में खो कर रूह से दूर न हो चलिए ,दिल के गलियारे में ...