जीत में खुशखबर और ग़म हार में
ज़िन्दगी यूँ ही कटती है बाज़ार में
कुछ तो था ही असर उनके गुफ्तार में
देर तक जो रहा कूचा -ए -यार में
जिनके आने की उम्मीद भी न रही
उसको क्यों ढूंढते हो अखबार में
हम को भी है ,तेरे फन पे, ऐतबार
तुम भी हँसते रहो अपने किरदार में
वो अदा ,वो सदा और वो बाकपन
दब गयी होंगी माजी के दीवार में
एक ख़त ही तो है और कुछ भी नहीं
पर ख़ुशी छा गयी देखो घर बार में
आ के साहिल पे मांझी नहीं सोचता
कितनी आई खरोंचें पतवार में
क़त्ल होता नहीं शेख मेरा वजूद
जंग लग गयी क्या ,तेरी तलवार में ?
हो जहाँ तुम वहाँ पे जला लो दिये
फिर रहे हो किस किस दयार में
या दवा कर दे कोई मुकम्मल खुदा
या नज़र फेर ले मुझसे इक बार में
आपने न पढ़ा ,आपने न सुना
खामियां रह गयी होंगी अशरार में
अभी करने है मुझको बहुत काम "नील"
अभी दो दिन बचे हैं जो इतबार में
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गुफ्तार:speech
कूचा :place
माजी :past
सदा:sound
दयार:country ,region
अशरार:couplets
हो जहाँ तुम वहाँ पे जला लो दिये
ReplyDeleteफिर रहे हो किस किस दयार में
...बहुत खूब! बेहतरीन ग़ज़ल...
बेहतरीन अभिव्यक्ति.....
ReplyDeleteआपका बहुत आभार कैलाश जी
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद सुषमा जी