कितने मौसम आते हैँ ,जब पंछी मिलकर गाते हैँ
बादल ज्यूँ उड़ जाता है ,वो चुपके से खो जाते हैँ
खामोशी में धड़कन कब होती हैँ खामोश ,
हर्फ़ों में ,इन ग़ज़लों में अक्सर उनको पाते हैँ
मिलना कब होता है ,है मशरूफ बहुत हर इन्सान
किनसे मिलते हैँ और जाने किनकी बात सुनाते हैँ
रस्ता रस्ता मंजिल मंजिल ,हर महफिल हर कूचे में ,
कितने सपने बुनते हैँ,कितने आह छुपाते हैँ
उखरे उखरे लगते हो ,बिखरे बिखरे लगते हो ,
तुम भी घर हो आओ "नील ",हम भी घर से आते हैँ
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (07-10-2016) के चर्चा मंच "जुनून के पीछे भी झांकें" (चर्चा अंक-2488) पर भी होगी!
ReplyDeleteशारदेय नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बढ़िया
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