Sunday, February 28, 2016

मुसाफ़िर

ईधर  जाऊँ , उधर जाऊं ,कहो कैसा सफर कर लूँ 
कई तो हैं तमाशे अब ,कहो कैसी नज़र कर   लूँ 

मुझे मिट्टी  ही प्यारी है,भले मैं   हूँ तेरा मज़दूर 
कहो  क्यों ए ज़मीं वाले , खुद को बेहुनर  कर लूँ 

मैं खामोश रह लूँगा ,फिर भी साँस  जब  लोगे
न तब भूल  पाओगे   ,खुद को जो शज़र  कर लूँ 

 मुझे मालूम है फिर आसमाँ का  रंग क्या होगा 
 परिंदा  हूँ,भरोषा पँख पर खुद के, अगर कर लूँ

कल, सूरज  !, न  जाने कौन सी ,धूप लाये "नील"
मुसाफ़िर हूँ ,हर रास्ते  को हमसफ़र कर कर लूँ

4 comments:

  1. सार्थक व प्रशंसनीय रचना...
    मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है।

    ReplyDelete
  2. आपने लिखा...
    कुछ लोगों ने ही पढ़ा...
    हम चाहते हैं कि इसे सभी पढ़ें...
    इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना दिनांक 04/03/2016 को पांच लिंकों का आनंद के
    अंक 231 पर लिंक की गयी है.... आप भी आयेगा.... प्रस्तुति पर टिप्पणियों का इंतजार रहेगा।

    ReplyDelete
  3. क्या बात है !.....बेहद खूबसूरत रचना....

    ReplyDelete

मेरी जुस्तजू पर और सितम नहीं करिए अब

मेरी जुस्तजू पर और सितम नहीं करिए अब बहुत चला सफ़र में,ज़रा आप भी चलिए अब  आसमानी उजाले में खो कर रूह से दूर न हो चलिए ,दिल के गलियारे में ...