बहुत किरदार है अभी भी निभाने बाकी
अभी कई दास्ताँ है तुमको सुनाने बाकी
उठा के चल रहे हैं क़र्ज़ कितने हम तो
अभी भी क़र्ज़-ए -जहाँ कितने उठाने बाकी
लिखेंगे काग़ज़ों पे हम कलम से ज़ज्बा
है जब तलक ज़िन्दगी के फ़साने बाकी
भुआ दिया है कई ग़म ,कई दर्द-ए-सफ़र
अभी कुछ और भी हैं दर्द भुलाने बाकी
कहाँ जोड़े है हमें शेख जी ये दैर -ओ-हरम
तो क्यों रहें न शहर में बस मयखाने बाकी
बची है आपकी दी हुई ये मुझको कलम
बचा है आज सिर्फ याद सिरहाने बाकी
जला चूका हूँ मैं इक चराग आँगन में
और ग़ज़ल में अभी तेरे दिये जलाने बाकी
रहेगा जौक तेरा हर ग़ज़ल में मेरे सनम
हैं जब तलक जहाँ में आपके दीवाने बाकी
न जाने मंजिल-ए -मक़सूद कब आएगी
न जाने मोड़ अब कितने हैं आने बाकी
कभी कभी मैं काशिद से पूछता हूँ "नील"
रहेंगे साथ अपने ख़त ही क्या पुराने बाकी
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दैर -ओ-हरम :place of worship
जौक:taste
काशिद :messenge
लिखेंगे काग़ज़ों पे हम कलम से ज़ज्बा
ReplyDeleteहै जब तलक ज़िन्दगी के फ़साने बाकी ..
बहुत खूब .. जिंदादिली इसी को कहते हैं ...
सभी शेर लाजवाब हैं इस गज़ल के ...
आपका बहुत आभार दिगंबर जी
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