उम्मीद का दरिया भी है ,ग़म का समंदर भी
कोई यहाँ ख़ाक में है ,कोई सिकंदर भी
दोस्तों देखे हैं हमने ,सभी एक हैं दिल से
दिल्ली भी घुमे ,पटना भी घुमे,पोरबन्दर भी
ग़म है ,ख़ुशी है ,तीरगी है और उजाला है
एक सा रहता नहीं देखो कलेण्डर भी
घर बनाते हैं महानगरों में ये साहूकार
रोशनी जा न सकेगी जिसके अन्दर भी
खून के छींटे परे हैं हर चौराहे पर
खुद से बहुत है शर्मसार आज खंजर भी
आदमी ही आदमी को खायेगा पुरजोर
इक दिन हमें दिख जाए न ऐसा मंज़र भी
एक ही के शोर से न जागेगा ये मुल्क
आइये जवान,जाहिद और सुखनवर भी
फ़र्ज़ को अपने कलम से बस निभाते जा
इक रोज़ फिर बेशक झुकेगा "नील" अम्बर भी
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तीरगी:darkness
जाहिद :devotee ,a saint
सुखनवर :poet
आदमी ही आदमी को खायेगा पुरजोर
ReplyDeleteइक दिन हमें दिख जाए न ऐसा मंज़र भी
वो दिन अब दूर नहीं ... जिस हालात में मानवता जा रही है ...
बहुत ही लाजवाब शेर कहें हैं .. सभी सामयिक ...
आपका आभार रचना को पसंद करने के लिए दिगम्बर जी
ReplyDeleteधन्यवाद