बस दरिया नहीं आबे-रवाँ और भी है
सागर अभी तो कारवाँ और भी है
काशिद बना है कलम,मकाँ पन्ना,
यारब जीने का गुमाँ और भी है
मन का हिरन चला जाता है दूर दूर
आँखों से अलग इक जहाँ और भी है
सहराओं में बस नहीं हैं रेत के चट्टान,
इस दश्त में कुछ निहाँ और भी है
चलते रहो कि है बहुत लम्बा सफ़र,
आगे तो सुदो-जियाँ और भी है
आखिरी पन्ना भी हो गया ख़तम ,
इस किताब की दास्ताँ और भी है
*निहाँ : छुपा
*सुदो-जियाँ :लाभ-हानि
*आबे-रवाँ : प्रवाह में बहता हुआ पानी
*काशिद : डाकिया
हो ली की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (08-03-2015) को "होली हो ली" { चर्चा अंक-1911 } पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Aapka dhanyvaad
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