Sunday, June 17, 2012

शायर जीता मरता है चैन से अपनी ग़ज़लों में

नहीं चाहता खो जाऊं मैं बस रेशमी पन्नों में ,
नहीं चाहता डूबता जाऊं बस कुछ बीते लम्हों में

बिलख रहा था दूर कहीं ,तभी एक सदा आई दौड़ी
क्या देंगे भला क्या देंगे ओ माँ तुम्हारी चरणों में

 कई उलझन दे देती है ये ज़ीस्त हमारे दामन में
सुलझ गया मैं ज़र्रा ज़र्रा जब डूबूं तेरे सपनों में

मन का आँगन ,ख़्वाबों का गगन ,एक दिया चाहत का
नहीं चाहता उडूं गगन और धरती हो मेरे क़दमों में

बचपन ,चाहत ,अल्हड़पन ,सब रूह की ही जुबानी है
लब पे आ जाते हैं बन के ढलते उगते नगमों में

ये है उस रब की इनायत ,इसका नाम मुहब्बत है
बिन मांगे हि मिल जाये कभी ,न मिले कभी तो जन्मों में

वो अमराई ,वो कोयल ,वो बागवाँ ,और पुरवाई
अपना सा इक गाँव ढूंढता रहता है वो शहरों में

नील ढूँढना कब्र -ओ -महफ़िल में उसको मत घड़ी घड़ी
शायर जीता मरता है चैन से अपनी ग़ज़लों में

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