वो कहते हैं कि मैं लिखता हूँ बेहतरीन आज
नहीं होता है खुद पे ही मुझको यकीन आज
यही कहता है शाम-ऐ-शहर का मुझे आलम
कि बनता जा रहा हर शख्स एक मशीन आज
कहते हो तो गाँव हैं , या कह दो तो शहर का शोर
उसे गेहूँ उगानी है ,वो बस चाहे ज़मीन आज
ज्यूँ धागे को किसी सुई में पिरोता है करीने से
उसी से सिख लेता हूँ की क्या है महीन आज
वही जिसने थमाया था कलम काग़ज़ का इक तोहफा
उसी के नाम करता हूँ कोई नगमा हसीन आज
नहीं होता है खुद पे ही मुझको यकीन आज
यही कहता है शाम-ऐ-शहर का मुझे आलम
कि बनता जा रहा हर शख्स एक मशीन आज
कहते हो तो गाँव हैं , या कह दो तो शहर का शोर
उसे गेहूँ उगानी है ,वो बस चाहे ज़मीन आज
ज्यूँ धागे को किसी सुई में पिरोता है करीने से
उसी से सिख लेता हूँ की क्या है महीन आज
वही जिसने थमाया था कलम काग़ज़ का इक तोहफा
उसी के नाम करता हूँ कोई नगमा हसीन आज