Saturday, January 4, 2020

ढूँढता है तू आवाज़ फिर नया

इस तरह से बस ही अपनाया हुआ
जैसे सूरज रात को पराया  हुआ

 घास की हरियाली नहीं जाती  यूहीं
ओस दर ब दर भी गर  छाया  हुआ

क्या पता कहते किसे हैं बिजलीयाँ
मोम सा जलता है और ज़ाया हुआ

तू नदी है मैं महज़ तहज़ीब हूँ 
कुछ सदी के बाद ठुकराया हुआ

खटखटाना भी नहीं ना  दी  सदा
कब से  दरवाजे पे तू आया हुआ

तुम सजावट देखते हो लौट कर
छोड़  कर जाते  हो उलझाया हुआ

सब  झगड़ते हैं  कि वो ही हैं सही
वक्त देखे सब को इतराया हुआ

जाने किस किस मोड़ पे है सुकून
जाने किस किस राह से भरमाया हुआ

ढूँढता है तू आवाज़ फिर नया
"नील" गाये गीत फिर  गाया हुआ

14 comments:

  1. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार(०५- ०१-२०२० ) को "माँ बिन मायका"(चर्चा अंक-३५७१) पर भी होगी।
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    **
    अनीता सैनी

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  2. जाने किस किस मोड़ पे है सुकून
    जाने किस किस राह से भरमाया हुआ

    ढूँढता है तू आवाज़ फिर नया
    "नील" गाये गीत फिर गाया हुआ

    बहुत खूब!

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  3. सुन्दर रचना

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  4. बहुत खूब...अच्छी गज़ल।

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  5. आपका बहुत धन्यवाद

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  6. बेहद उम्दा गजल

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