इस तरह से बस ही अपनाया हुआ
जैसे सूरज रात को पराया हुआ
घास की हरियाली नहीं जाती यूहीं
ओस दर ब दर भी गर छाया हुआ
क्या पता कहते किसे हैं बिजलीयाँ
मोम सा जलता है और ज़ाया हुआ
तू नदी है मैं महज़ तहज़ीब हूँ
कुछ सदी के बाद ठुकराया हुआ
खटखटाना भी नहीं ना दी सदा
कब से दरवाजे पे तू आया हुआ
तुम सजावट देखते हो लौट कर
छोड़ कर जाते हो उलझाया हुआ
सब झगड़ते हैं कि वो ही हैं सही
वक्त देखे सब को इतराया हुआ
जाने किस किस मोड़ पे है सुकून
जाने किस किस राह से भरमाया हुआ
ढूँढता है तू आवाज़ फिर नया
"नील" गाये गीत फिर गाया हुआ
जैसे सूरज रात को पराया हुआ
घास की हरियाली नहीं जाती यूहीं
ओस दर ब दर भी गर छाया हुआ
क्या पता कहते किसे हैं बिजलीयाँ
मोम सा जलता है और ज़ाया हुआ
तू नदी है मैं महज़ तहज़ीब हूँ
कुछ सदी के बाद ठुकराया हुआ
खटखटाना भी नहीं ना दी सदा
कब से दरवाजे पे तू आया हुआ
तुम सजावट देखते हो लौट कर
छोड़ कर जाते हो उलझाया हुआ
सब झगड़ते हैं कि वो ही हैं सही
वक्त देखे सब को इतराया हुआ
जाने किस किस मोड़ पे है सुकून
जाने किस किस राह से भरमाया हुआ
ढूँढता है तू आवाज़ फिर नया
"नील" गाये गीत फिर गाया हुआ
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार(०५- ०१-२०२० ) को "माँ बिन मायका"(चर्चा अंक-३५७१) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
**
अनीता सैनी
आपका बहुत धन्यवाद
Deleteजाने किस किस मोड़ पे है सुकून
ReplyDeleteजाने किस किस राह से भरमाया हुआ
ढूँढता है तू आवाज़ फिर नया
"नील" गाये गीत फिर गाया हुआ
बहुत खूब!
आपका बहुत धन्यवाद
Deleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteआपका बहुत धन्यवाद
Deleteबहुत खूब...अच्छी गज़ल।
ReplyDeleteआपका बहुत धन्यवाद
ReplyDeleteवाह! शानदार।
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका
Deleteबेहद उम्दा गजल
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका
Deleteसुंदर /शानदार।
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका
Delete