Monday, November 18, 2019

बादल के पर्दे

कहाँ तक जायें  कि कोई किनारा कहाँ 
चुभती है सुई की घङी ,मझधारा कहाँ 

हम जमीन वाले , आसमान है तेरा 
चमकता  है अब हमारा सितारा कहाँ 

तुम बादल के पर्दे को हटाकर देखो 
कहाँ गिरे बर्फ , बढ़ा है पारा कहाँ 

ये वक्त की लहर है , समँदर सा ज़ीस्त 
लौट के फिर आयेगा दोबारा कहाँ 

बदस्तूर  है ज़ारी एक जंग  अज़ल  से ,
दिल जुबाँ दोनो तुझपे वारा  कहाँ 

क्या है तेरी ख्वाईश कि तुझसे "नील "
कोई जीता किधर ,कोई हारा कहाँ




2 comments:

  1. आपका आभारी हूँ इस कृति को स्थान देने के लिये

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  2. आपका बहुत आभारी हूँ मयंक दा

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