कहाँ तक जायें कि कोई किनारा कहाँ
चुभती है सुई की घङी ,मझधारा कहाँ
हम जमीन वाले , आसमान है तेरा
चमकता है अब हमारा सितारा कहाँ
तुम बादल के पर्दे को हटाकर देखो
कहाँ गिरे बर्फ , बढ़ा है पारा कहाँ
ये वक्त की लहर है , समँदर सा ज़ीस्त
लौट के फिर आयेगा दोबारा कहाँ
बदस्तूर है ज़ारी एक जंग अज़ल से ,
दिल जुबाँ दोनो तुझपे वारा कहाँ
क्या है तेरी ख्वाईश कि तुझसे "नील "
आपका आभारी हूँ इस कृति को स्थान देने के लिये
ReplyDeleteआपका बहुत आभारी हूँ मयंक दा
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