कल्पनाओं को छान यूँ यथार्थ करूँ,
अपने अंतः करण को कृतार्थ करूँ
कभी बन जाऊं स्वयं कृष्ण अबोधों के लिए,
कभी विस्मय में हूँ तो स्वयं को ही पार्थ करूँ
तू प्रति क्षण मेरा दर्पण है,मेरे छन्द तुम्ही पर अर्पण हैं,
तू ही टोके जब स्वार्थ करूँ,तू कह दे तो परमार्थ करूँ
ये कल्पना भी नहीं की विस्मरण हो,
प्रभु ! ,जो कह दिया ,उसे कैसे चरित्रार्थ करूँ
अपने अंतः करण को कृतार्थ करूँ
कभी बन जाऊं स्वयं कृष्ण अबोधों के लिए,
कभी विस्मय में हूँ तो स्वयं को ही पार्थ करूँ
तू प्रति क्षण मेरा दर्पण है,मेरे छन्द तुम्ही पर अर्पण हैं,
तू ही टोके जब स्वार्थ करूँ,तू कह दे तो परमार्थ करूँ
ये कल्पना भी नहीं की विस्मरण हो,
प्रभु ! ,जो कह दिया ,उसे कैसे चरित्रार्थ करूँ
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (06-11-2019) को ""हुआ बेसुरा आज तराना" (चर्चा अंक- 3511) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपका बहुत आभारी हूँ मयंक दा ,सादर
Delete-- नील
वाह ...
ReplyDeleteबहुत गहरा लेखन ...
आध्यात्म भाव लिए ...
आपकी स्नेहपूर्वक टिप्पणी का शुक्रगुजार हूँ दिगंबर जी
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