एक टूटे हुए पत्ते ने जमीं पायी है ,
जड़ तक पहुंचा दे ,ये सदा लगायी है !
सादा कागज है मुंतज़िर कि आये गजल
क्या कलम में हमने भरी रोशनाई है ?
झील में मारकर पत्थर न दिखाओ सागर
झील की सादगी भी हमको रास आयी है !
हर तरफ आईने ,हर आईने में कई चेहरे,
किस चेहरे में जी ने सुकूं पायी है ?
वो तो है रोशनी जो हो तो है सबकी आन
कभी कह दो उसे पर्वत या कहो राई है !
ठुकराऊँ खुद "नील" की कई गहरी बातें
नीले सागर से ही पायी ये गहराई है !
जड़ तक पहुंचा दे ,ये सदा लगायी है !
सादा कागज है मुंतज़िर कि आये गजल
क्या कलम में हमने भरी रोशनाई है ?
झील में मारकर पत्थर न दिखाओ सागर
झील की सादगी भी हमको रास आयी है !
हर तरफ आईने ,हर आईने में कई चेहरे,
किस चेहरे में जी ने सुकूं पायी है ?
वो तो है रोशनी जो हो तो है सबकी आन
कभी कह दो उसे पर्वत या कहो राई है !
ठुकराऊँ खुद "नील" की कई गहरी बातें
नीले सागर से ही पायी ये गहराई है !
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 25 नवम्बर 2019 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteआपका बहुत आभार यशोदा जी रचना को स्थान देने हेतु
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (26-11-2019) को "बिकते आज उसूल" (चर्चा अंक 3531) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभारी हूँ आपका मयंक दा चर्चा मंच में स्थान देने हेतु
Deleteझील की सादगी ही रास आई है ...
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत शेर हैं ... लाजवाब ....
धन्यवाद दिगंबर जी
Deleteवाह शानदार गज़ल...हर बंध लाज़वाब।
ReplyDeleteआपका शुक्रिया श्वेता जी
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