सामने शगल हो जो हर रूप में पानी हो
जिसके खातिर अपनी हर साँसें दीवानी हो
खिंच कर ले जाते हो अब किस किस दयार में ?
ऐसा भी नहीं कि राहें जानी पहचानी हो !
बार बार बदल रहे हो कपड़े ,नहाना गौण हआ ?
देख लो कोई इत्र भी तुमको शायद अभी लगानी हो !
इस समँदर का मंथन करूँ तो बस मैं कैसे ?
कोई शिव ,कोई वासुकी-मंदार ,कोई चक्र पाणी हो
सब रँग बनाये हैं लेकिन एक चित्रकार नहीं ,
इस रँग -ए -महफिल में क्या वाज़िब निशानी हो ?
जगमगाया हुआ शहर है घृत तैल के दीपों से ,
एक रोटी ही सही किसी भूखे को भी पकानी हो ?
ये कागज़ , कलम और स्याही ,सब से कर दे जुदा हमें ,
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 03 नवम्बर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteयशोदा जी। इस रचना के चयन के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। सादर - नील
Deleteये कागज़ , कलम और स्याही ,सब से कर दे जुदा हमें ,
ReplyDeleteये शगल , "नील " और कोशिशों की कोई उम्दा ही कहानी हो।
बहुत ही सुंदर लेखन। बधाई हो। शुभकामनाएं स्वीकार करें ।
पुरुषोत्तम जी। मेरे ब्लॉग पर आने और उदार टिप्पणियों के लिए आपको बहुत धन्यवाद
Deleteसराहना करने के लिए आपका धन्यवाद. सादर. नील
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