Sunday, November 3, 2019

मंथन

 सामने  शगल  हो जो  हर  रूप    में   पानी  हो
जिसके  खातिर  अपनी  हर  साँसें  दीवानी  हो 

खिंच  कर  ले  जाते  हो  अब  किस किस  दयार में ?
ऐसा  भी  नहीं  कि  राहें  जानी  पहचानी  हो  !

बार  बार  बदल  रहे  हो  कपड़े ,नहाना  गौण  हआ  ?
देख  लो  कोई  इत्र  भी तुमको शायद अभी  लगानी  हो  !

इस  समँदर  का   मंथन  करूँ तो  बस  मैं  कैसे ?
कोई  शिव ,कोई  वासुकी-मंदार ,कोई  चक्र  पाणी  हो 

सब  रँग  बनाये  हैं   लेकिन एक चित्रकार  नहीं ,
इस  रँग -ए -महफिल  में क्या वाज़िब  निशानी  हो  ?

जगमगाया  हुआ  शहर है घृत तैल के दीपों  से ,
एक   रोटी  ही  सही  किसी  भूखे    को  भी पकानी  हो  ?

ये  कागज़ , कलम  और  स्याही  ,सब से कर दे जुदा हमें ,
ये  शगल  , "नील " और  कोशिशों  की कोई उम्दा ही  कहानी  हो

5 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 03 नवम्बर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. यशोदा जी। इस रचना के चयन के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। सादर - नील

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  2. ये कागज़ , कलम और स्याही ,सब से कर दे जुदा हमें ,
    ये शगल , "नील " और कोशिशों की कोई उम्दा ही कहानी हो।
    बहुत ही सुंदर लेखन। बधाई हो। शुभकामनाएं स्वीकार करें ।

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    1. पुरुषोत्तम जी। मेरे ब्लॉग पर आने और उदार टिप्पणियों के लिए आपको बहुत धन्यवाद

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  3. सराहना करने के लिए आपका धन्यवाद. सादर. नील

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