Friday, November 15, 2019

एक काठ की नाव

जब आयी है मुकाम की घड़ियाँ करीब आज तो
कर काशिशें इक बार फिर भूलो नसीब आज तो

बोलों का ,गीतों का ,एहसासों का इम्तेहान है
बाग में हमने बुलाये   अंदलीब  आज तो

 दिवारों को,मुंडेरों को और दर-ओ-दरवाजों को
जाना की सम्भालता है कोई नीब आज तो

यूँ तो रख रहा था वो रश्क-ओ-रंज बारहा
बन गया है देख लो खुद का रकीब आज तो

लहरों की मार कारवाँ के बोझ से ऊँघा हुआ
एक काठ की नाव पर सोया गरीब आज तो

आखिरी पन्ने से अब पढ़ना शुरू ए "नील" कर
तुझ को लगेगा फलसफा कितना अजीब आज तो

9 comments:

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    1. बहुत धन्यवाद प्रकाश जी

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  2. वाह... बहुत खूब।
    आखिरी पन्ने से पढ़ना... कमाल।

    मेरी कुछ पंक्तियां आपकी नज़र 👉👉 ख़ाका 

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    1. बहुत धन्यवाद रोहितास जी

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (17-11-2019) को     "हिस्सा हिन्दुस्तान का, सिंध और पंजाब"     (चर्चा अंक- 3522)    पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    -- 
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    --
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. आपका बहुत धन्यवाद मयंक दा इस रचना को चर्चा मंच मे स्थान देने हेतु

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  4. शब्द शब्द में पीड़ित मानवता का मर्म ओकरा है आप ने
    बेहतरीन अभिव्यक्ति आदरणीय
    सादर

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    1. बहुत धन्यवाद अनीता जी

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  5. बहुत धन्यवाद यशोदा जी

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