क्यूँ उगते हुए सूरज को आफताब कहते हैं ,
गर दीपक बुझ गया तो क्यूँ खराब कहते हैं
सुकून मिलता नहीं मगर फिर भी क्यूँ ,
सुकून मिलता नहीं मगर फिर भी क्यूँ ,
लोग अंदाज़े को भी जवाब कहते हैं
बागों में जब से मिलने लगे हैं हमें काँटे
काग़ज़ को सेज ,कलम को गुलाब कहते हैं
गम और ख़ुशी दोनों हैं किनारे ज़िन्दगी के
हम इसे रब का ही वाजिब हिसाब कहते हैं
न जाने रुखसती पे अंजाम क्या होगा
जिस ख़ुशी में मुझसे वो आदाब कहते हैं
जब से आये हैं छोड़कर अपना गाँव
हर आने वाले ख़त को लाजवाब कहते हैं
चल परा है जाने कैसे सिलसिला यारों
मेरी खामोशियों को भी किताब कहते हैं
नील शहरों का आज बदला हुआ है रंग
खुदा जाने किसको कामयाब कहते हैं
जब से आये हैं छोड़कर अपना गाँव
ReplyDeleteहर आने वाले ख़त को लाजवाब कहते हैं
चल परा है जाने कैसे सिलसिला यारों
मेरी खामोशियों को भी किताब कहते हैं
नील शहरों का बदला हुआ है रंग आज
खुदा जाने किसको कामयाब कहते हैं
लाजवाब पंक्तियाँ नीलांश जी बहुत ही खूबसूरत एवं उम्दा शायरी ...
आपका बहुत आभारी हूँ पल्लवी जी
ReplyDeleteधन्यवाद
सुन्दर प्रस्तुति .बेह्तरीन अभिव्यक्ति .आपका ब्लॉग देखा मैने और नमन है आपको और बहुत ही सुन्दर शब्दों से सजाया गया है लिखते रहिये और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये. मधुर भाव लिये भावुक करती रचना,,,,,,
ReplyDeleteबहुत आभारी हूँ मदन जी, सादर आभार
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