लोग रूह-ए-ख़ास बन जाते हैं, आहिस्ता आहिस्ता
दूर होकर फिर साथ निभाते हैं ,आहिस्ता आहिस्ता !!
ओस की बूँदें ही काफी हैं प्यास बुझाने को
इक याद में मकान बनाते हैं, आहिस्ता आहिस्ता !!
लोग मलमल के कपडे पहनते ही क्यों हैं
जब यहाँ आग लगाते हैं , आहिस्ता आहिस्ता !!
शहद चखने की आदत है सब को मगर
क्यों वो नीम पकाते हैं ,आहिस्ता आहिस्ता !!
ए "नील" ,उन्होंने खूब बेचे होंगे कारतूस,मगर
हम रोज़ कबूतर उड़ाते हैं ,आहिस्ता आहिस्ता !!
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