अनमने से चेहरे
देखते हैं मुझे
कुछ बबूल से
कुछ अमर बेल से
और असहाय हो जाता हूँ
उनके मूकता से
उनके दुष्ट स्वाभाव
उनके निजता से
ढूँढता हूँ
गुलाब सा कोई उन चेहरे में
जो न बोले भी
दिव्यमान कर दे मन को
और दृढ़ता करने पर
अपने शौर्यता का भी परिचय दे
अपने काँटों से
और ऐसे चेहरों के तलाश में
रोज़ चलता हूँ
कभी पत्थरों पर...
कभी हरे भरे घास पर...
मेरी निगाहें गुलाब के आस में
कोयला बन गयी है
जो चिंगाड़ी लगाने
पर जला देती है
मेरे सारे पीडाओं को ....
पर उस जलन को ज्यादा नहीं झेल सकता
गुलाब के पंखुरियां ..
और उसके कांटे
मेरे कष्ट हर लेंगे.
और इसी आस में
आस्था अब भी जीवित है गुलाब में...
आशान्वित भाव!! शुभ-भाव!!
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निरामिष: अहिंसा का शुभारंभ आहार से, अहिंसक आहार शाकाहार से