मशाल बुझी मुसाफिर की
और साए ने साथ छोर दिया
चिराग जो भीतर था
उसे ढूँढने चला था वो
उस मशाल से मिल जाए
ये कब मुमकिन हुआ
चाहे मीलों वो बढे जाए
एक दिन उसको रुक जाना था
खुद के रंगों से था अनजाना
पर हर रंगों से था पहचान किया
देखकर बुझती लौ को घबराया
अँधेरे से अनजान था जो
हो गए सारे रंग काफूर
तब उसको इसका भान हुआ
बुझना ही था तो कुछ ऐसा हो
खुद दीपक बन बुझ जाना था
बुझना ही था तो कुछ ऐसा हो
ReplyDeleteखुद दीपक बन बुझ जाना था
बहुत सुन्दर सन्देश ...बधाई
दीपक बुझ जाता है मगर सबको प्रकाश की एक उम्मीद दिखा जाता है..
ReplyDeleteअंतिम समय तक तिमिर से हर न मानने का सन्देश दे जाता है..
सुन्दर कविता
बहुत सुन्दर और भावमयी रचना।
ReplyDeleteसुन्दर सन्देश देती रचना
ReplyDelete