कुछ उम्मीदों का घड़ा
शब्दों के कंकड़ से
या फिर उसने
भावों के लहर
को एक उद्गम मार्ग दे डाला है
इस रेत के शहर को
जो उम्मीद रखते ही नहीं हैं
जब शीशा टूटता है
तो आवाज़ भी नहीं आती
कर्णप्रिय भी नहीं होती
और घायल भी करती है
पर उम्मीद का घड़ा जब
टूटता है
तो सारी आवाज़ वीराने में
खो जाती है
पर दे जाती है
प्यासे रेत के शहर को
एक बूँद ज़िन्दगी की ...
बहुत सुन्दर रचना...
ReplyDeleteवाह सुंदर
ReplyDeleteबहुत सुन्दर बधाई
ReplyDeleteGreater the expectations, greater the disappointments.
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