एक कच्चे धागे पर
निरंतर वो चलता है
दीवाना है ,अपने
साहस को परखता है
एक छोर पर
दिया का बंधन
एक छोर पर
गुफा है गहन
पर वो दूर
एक लौ से प्रेरित
बढ़ता है
उस धागे पर नित
अनभिज्ञ है
उसकी ज्वाला से वो
डोर का दहन भी
करेगी एक दिन जो
पर चलना है
चलता ही जाता है
उस लौ से
संबल पाता है
मन का पंछी
धीरे धीरे
बस आगे
बढ़ता जाता है ...
अन्धकार से
प्रकाश को
दीपक से
मिलने की आस को
वो दीवाना
सपनो के डोर पर
एक छोर से
दूजे छोर पर
बस आगे
बढ़ता जाता है
मन का पंछी
धीरे धीरे
बस आगे
बढ़ते जाता है .
बढते जाना ही सकारात्मकता की निशानी है ..सुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteचर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 03- 05 - 2011
ReplyDeleteको ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
http://charchamanch.blogspot.com/
जीवन के सफ़र सा ही तो हुआ डोर पर चलना भी ...
ReplyDeleteजाने कहाँ गिरे , कहाँ सम्भले ...संतुलन बनाये रखना होता है जीवन में भी !
अच्छी रचना !
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteबहुत सकारात्मक सोच..बहुत सुन्दर प्रस्तुति
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