Tuesday, April 24, 2012

गुलमोहर

पस   -ए -दरीचे  मेरे  एक  गुलमोहर  है ,
उस  दरख़्त  को  मेरी  खैर  -ओ -खबर  है

वक़्त  की   करवट  नहीं  रखता  वो  होशमंद
ज़माने  की  शोहबत  से  वो  बे -असर  है

आज  जब  खो  गया  मेरा  सारा  अल्हड़पन
ये  देख    वो  रोया   है  आज  तर -ब -तर  है

दहलीज़  से  लौटें  हैं  कई   शक्ल  जिस्म -ओ-जान 
लेकिन  वो  है  वहीँ  मेरा  हमसफ़र  है

परिंदों  को  प्यारा   है  एक  "नील  " सा  गगन
और  दरख़्त  वो  बेगर्ज़  ही  तो  उनका  घर  है

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