कबूतर रोज़ शाम
मेरे घर की मुंडेर पर
आते हैं
पिंजर बंध थे
बचपन से वो
बस आते हैं
चले जाते हैं
सिखा न था स्वछंद विचरण
देखा न था कभी भी दर्पण
कुछ चेहरे उन जैसे ही हैं
पर वो तो आश्चर्यचकित हैं
उनके आवाज़ भी मिलते जुलते
पर वो कितने प्रसन्नचित हैं
कुछ हवा मिले ताज़ी ताज़ी
हृष्ट पुष्ट बने वो भोले भले
इसलिए उनके दाता ने
दी है छोटी सी स्वछंदता
उनको यूँ आना और जाना
लगती है जीवन की सत्यता
पर वो हैं स्वार्थ से अनजान
दुनिया के रंगों से बेखबर
कल किसी बेनाम हाट पर
होंगे उनके नीलामी के स्वर
होगा तब भान उन्हें
स्वतंत्रता क्या है ज्ञान उन्हें
पर वो निरंतर ही
बस आते हैं
चले जाते हैं ...
कबूतर रोज़ शाम
मेरे घर की मुंडेर पर
आते हैं
निशांत अभिषेक
उनका निर्द्वन्द आना जाना तो सत्यता है. पर कब तक ...
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