ज़माना मौसम सा हरदम रूप बदलता रहा
जैसे सांझ रोज़ आकर धुप निगलता रहा !!
ओस की महफ़िल थी ,हवा आई और खो गयी
वो मुसाफिर दूर कहीं ख्वाब पर पलता रहा !!
रिश्ते सारे बर्फ से इस शहर में बनते गए
गम के भीनी आंच में वो भी पिघलता रहा!!
अजनबी शहर से बड़ी उम्मीद की थी उसने
हर शख्स चाँद सा पर ,उस चकोर को छलता रहा !!
उसकी जुबान पर भी लगता था शख्त पहरा
सिला काफिरों सा उसकी बंदगी को मिलता रहा !!
ऐ "नील" उस रोज़ वो बड़े चैन से सोया था
और कब्र पर मोहब्बत का बस एक दिया जलता रहा !!
अच्छी अभिव्यक्ति......
ReplyDeleteबहुत खूब!
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