दूर और पास होने के भेद
कम होने लगते हैं
जब कभी मैं ढूंढता हूँ
खुद को और
तुझको नहीं पाता हूँ ....
खुद से दूर होकर तुम्हारे पास
चला आता हूँ
और ज़िन्दगी
तुझसे दूर कर देती है ...
पर इस क्रम में
मेरी तलाश
अब और सजग हो गयी है ...
एक अघोषित रिश्ता
अब साथ है
एहसासों के कर्तव्यों को
निभाते और स्वीकार
करते हुए अनवरत .....
अब धीरे धीरे तू मेरा "मैं"
बन गयी है
अब मैं अकेला नहीं हूँ ...
और न ही गम तुम्हे
अलग कर पाएगी
मेरे अस्तित्व से ,
क्या जल की धरा को
कोई काट साकता है, नहीं न !
तो एहसासों के समुंदर को
काटना भी गम के लिए
मुमकिन नहीं ...
और न ही गम तुम्हे
अलग कर पाएगी
मेरे अस्तित्व से ,
क्या जल की धरा को
कोई काट साकता है, नहीं न !
तो एहसासों के समुंदर को
काटना भी गम के लिए
मुमकिन नहीं ...
बहुत ही भावपूर्ण रचना बधाई
ReplyDeleteसुन्दर भाव नीलांश जी. कभी मैंने इसी भाव पर ये शेर लिखा था कि -
ReplyDeleteनिहारता हूँ मैं खुद को जब भी तेरा ही चेहरा उभर के आता
ये आईने कि खुली बगावत क्या तुमने देखा जो मैंने देखा
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
http://www.manoramsuman.blogspot.com
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http://maithilbhooshan.blogspot.com/
sunder shabdo aur payr ke ehsaaso se rachi rachna...
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