ये ज़िन्दगी आईने को भी आइना दिखा देती है
इंसान का क्या ,पत्थर को भी खुदा बता देती है
जब भी चलती है एक कारवां संग चलता है
रूक जाए तो सिकंदर को भी रास्ता दिखा देती है
टूटते ख़्वाबों के दरमियाँ बनते बिगड़ते रिश्ते
ये तो हर इक रिश्ते का मतलब सिखा देती है
मुकम्मल जहां की तलाश में कुछ न हो हासिल
ये मगर मौत का तोहफा दे एहसान जता देती है
देखते ,ढूंढते ,समझते रहे सारे कायनात को
ये मगर वो किताब है जो हमें खुद का पता देती है
यही दोस्त ,यही दुश्मन ,यही हमसफ़र है "नील"
ये गर चाहे तो मरघट में भी घरौंदा बसा देती है
बहुत सुन्दर मखमली ग़ज़ल रही है आपने!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर मखमली ग़ज़ल रची है आपने!
ReplyDeletebhut hi pyari gazal....
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