जिस प्रकार इक छोटा सा दीपक आँखों को ज्योति दे सकता है पर खुद उसके तले अँधेरा रहता है
अथार्थ
श्रेष्ठ परोपकार करने में स्वयं को परे कर देना परता है
फौजी खुद अपने घर नहीं जा पाते पर हमारा घर में होना सार्थक करते हैं
किसान वर्षा , ताप और हवाओं को झेलते हैं पर हमें अन्न और प्रसाद की कमी नहीं होने देते
गुरु स्वयं लघु और तपस्वी की भाती जीवन व्यतीत करता है ताकी उसके शिष्य हर ऐश्वर्य से परिपूर्ण हो जायें
मज़दूर हमारे कार्य साधने में अपना समर्पण करते हैं
माता पिता अपने संतति की चिंता करते हैं और उनकी मनोइच्छाओं को पूरा करते हैं
आईये जीवंत दीपकों का स्मरण और अभिवादन करें
अथार्थ
श्रेष्ठ परोपकार करने में स्वयं को परे कर देना परता है
फौजी खुद अपने घर नहीं जा पाते पर हमारा घर में होना सार्थक करते हैं
किसान वर्षा , ताप और हवाओं को झेलते हैं पर हमें अन्न और प्रसाद की कमी नहीं होने देते
गुरु स्वयं लघु और तपस्वी की भाती जीवन व्यतीत करता है ताकी उसके शिष्य हर ऐश्वर्य से परिपूर्ण हो जायें
मज़दूर हमारे कार्य साधने में अपना समर्पण करते हैं
माता पिता अपने संतति की चिंता करते हैं और उनकी मनोइच्छाओं को पूरा करते हैं
आईये जीवंत दीपकों का स्मरण और अभिवादन करें
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (29-10-2019) को "भइया-दोयज पर्व" (चर्चा अंक- 3503) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
दीपावली के पंच पर्वों की शृंखला में गोवर्धनपूजा की
हार्दिक शुभकामनाएँ और बधाई।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
चर्चा मंच के लिए इस रचना को चुनने के लिए मैं आपका बहुत आभारी हूँ मयंक दा
Deleteबहुत खूब नीलांश जी
ReplyDeleteआपकी टिप्पणी के लिए धन्यवाद अलकनंदा जी
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