किस पे रखूँ यकीं कि हर कोई कभी खास ही था ,
झूठ और सच है क्या ? ,मेरा खुदा मेरा विश्वास ही था !
मुझको सहरा में बहुत लोगों ने सहारा भी दिया ,
कई अजनबीयों को किया अपना , वो मेरा प्यास ही था !
आज ओढ़ के तुम कात रहे हो , वो है मेहनत !
ये सूत है इक सोच , जो शजर का कपास ही था
उसको खत दे कर मत तोड़ ,ए नादाँ काशिद ,
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