एक चाय की तलब को छोड़ भी सकते हो क्या ,
पास खुद के खुद को अब मोड़ भी सकते हो क्या !
ताश के पत्तों के घर पर भी अना कर लेते हो ,
नीब अब अपने मकाँ में जोड़ भी सकते हो क्या !
वायदों के जाल में फँस जाते हो ,फँसाते हो ,
तुम ही कह दो चाँद तारे तोड़ भी सकते हो क्या !
है तुम्हारे प्यार का इम्तेहाँ ! ,उस नीम से ,
तुम शहद की बूँद , निचोड़ भी सकते हो क्या !
गुल्लकों में क़ैद खुशियाँ , किस शमाँ का इंतज़ार ?
"नील " हर कूचे में उनको फोड़ भी सकते हो क्या !!
No comments:
Post a Comment