वो घर से निकालता है
और साथ निकलते हैं
कुछ आशाएं
उसके अपनों के
उसके पुरखों के
सपनो के
साथ है
उसके संग बस एक
लोहे का कुल्हारी
और उसकी गरीबी
और लाचारी
बादल घिर आयें हैं
जल्दी जल्दी
वो चलता है
नियति के संग जुआ
वो नित दिन खेला
करता है
शाम हुई और घर को लौटा
बच्चों को भूख लगी है
लकड़ी के टुकड़ों पर देखो
खाली हांडी रखी है
वो कुछ नहीं बोले
और बच्चे भी चुपचाप हैं
मोल समझते हैं रोटी की
वो एक मजदूर के लाल है
माँ लौटेगी कुछ देर में
बर्तन माझने गयी है
कुछ लाएगी खाने को
ये वो कह गयी है
इसी तरह एक जीवन
कहीं किसी घर में कट जाता है
और साथ निकलते हैं
कुछ आशाएं
उसके अपनों के
उसके पुरखों के
सपनो के
साथ है
उसके संग बस एक
लोहे का कुल्हारी
और उसकी गरीबी
और लाचारी
बादल घिर आयें हैं
जल्दी जल्दी
वो चलता है
नियति के संग जुआ
वो नित दिन खेला
करता है
शाम हुई और घर को लौटा
बच्चों को भूख लगी है
लकड़ी के टुकड़ों पर देखो
खाली हांडी रखी है
वो कुछ नहीं बोले
और बच्चे भी चुपचाप हैं
मोल समझते हैं रोटी की
वो एक मजदूर के लाल है
माँ लौटेगी कुछ देर में
बर्तन माझने गयी है
कुछ लाएगी खाने को
ये वो कह गयी है
इसी तरह एक जीवन
कहीं किसी घर में कट जाता है
वो घर है एक मजदूर का
जो मेहनत की रोटी खाता है
बहुत मार्मिक दिल को छुं लेने वाली रचना ...
ReplyDeleteaashayen nid se jhaankti hain ... bahut hi gahri dil ko chhuti abhivyakti
ReplyDeleteबहुत गहन मार्मिक प्रस्तुति..
ReplyDeleteवो घर है मजदूर का..
ReplyDeleteमजदूर का वास्तविक चित्रण ..