तुम्हारे दिए कुछ ओस की बूँद को
समेट कर अपने मन के कूप में
रखा था ,
तुम्हारे
सान्तावना और अपनत्व के बादल आकर
उस कूप को भरने की
कोशिश करते हैं बरस कर
कभी - कभी ,
पर मैं ही उसे तब ढक देता
हूँ
तुम्हे दुःख तो होता होगा
पर तेरे दिए वो
ओस की बूँद
अमृत हैं जिसे मैं
विलीन नहीं होने दूंगा
उन बरसाती बूंदों के साथ ,
तुम्हारा प्रेम इतना
निर्बल नहीं था की
मुझे सहारे की
आदत पर जाए प्रिये !
आखिरी लम्हों में शायद तुमने
उन ओस की बूंदों को
संभाल के रखने के
लिए कहा था
अपने स्वाभिमान की तरह ...
पर तू आ जाती है फिर भी क्यूँ ?
बहुत कठिन है पर
मैंने संभाला है प्रिये उन
ओस की बूंदों को ....
बादल बिन बरसे जाएँ
अच्छा लगता है...
तुम्हारी खबर तो लग ही जाती है....
बेहतरीन कविता संसार, अच्छे शब्द चयन बधाई
ReplyDeletebhut hi khubsurat bhaavo ko sunder shabdo me utara hai apne...
ReplyDelete