छोटे -छोटे
कांच के टुकड़े छोड़ कर
आया हूँ
रेत पर
लहरों से खेलते हुए ,
चमकते थे वो
जब
तब तुम्हारी
आँखों की खुशियाँ देख लेता था ,
एक बार फिर
उन्हें रेत से चुन
लाने को जाता हूँ ,
ढूँढने में
चोट तो लगेगी
पर
उन लहरों में खोयी मेरी
करुण पुकार
और
उस रौशनी
से चमकते वो
कांच के टुकरे ,
मेरे सभी दर्दों को
हर लेंगे
तुम्हारे उस
मूक परित्याग
का स्मरण करा कर मुझे ,
जब तुम्हारे उस परित्याग पर
मेरे मौन
स्वीकृति को
शायद तुमने
न समझा हो ....
ये बहते रुधिर आज
उस पल के साक्षी होंगे
जब ह्रदय पिघल कर
उस दिन बह गया था
तेरे लिए ....
शायद ये प्रेम भी कांच ही है !
कांच के टुकड़े छोड़ कर
आया हूँ
रेत पर
लहरों से खेलते हुए ,
चमकते थे वो
जब
तब तुम्हारी
आँखों की खुशियाँ देख लेता था ,
एक बार फिर
उन्हें रेत से चुन
लाने को जाता हूँ ,
ढूँढने में
चोट तो लगेगी
पर
उन लहरों में खोयी मेरी
करुण पुकार
और
उस रौशनी
से चमकते वो
कांच के टुकरे ,
मेरे सभी दर्दों को
हर लेंगे
तुम्हारे उस
मूक परित्याग
का स्मरण करा कर मुझे ,
जब तुम्हारे उस परित्याग पर
मेरे मौन
स्वीकृति को
शायद तुमने
न समझा हो ....
ये बहते रुधिर आज
उस पल के साक्षी होंगे
जब ह्रदय पिघल कर
उस दिन बह गया था
तेरे लिए ....
शायद ये प्रेम भी कांच ही है !
छोटे -छोटे
ReplyDeleteकांच के टुकरे छोड़ कर
आया हूँ
रेत पर
लहरों से खेलते हुए ,
चमकते थे वो
जब
तब तुम्हारी
आँखों की खुशियाँ देख लेता था ,
adbhut
अप्रचलित प्रतीकों से लैश आपकी कविता ध्यान खीचने में सफल बढ़ायी निलेश जी
ReplyDeletebhut hi khubsurat abhivakti...
ReplyDeleteये बहते रुधिर आज
ReplyDeleteउस पल के साक्षी होंगे
जब ह्रदय पिघल कर
उस दिन बह गया था
तेरे लिए ....
बहुत खूब लिखते हैं आप.
दिल को छू रही है आपकी रचना.