ढलकते हैं
कभी उफनते हैं
खुद से लरते
हम
चलते
कभी उफनते हैं
खुद से लरते
हम
चलते
रहते हैं ,
कभी पीपल
के आश्रय में
सब चिंता भूल जाते हैं
कभी हरे भरे
घास को लहलहाता देख
जीवन संघर्ष का
अर्थ जान लेते हैं,
बस ढूँढ़ते हैं खुद को
और खो जाते हैं
अपने वजूद में
एक नीम के शाख के जैसा
जो कड़वाहट से भी
मिठास घोलती है
क्या हुआ वो
कोयलिया की कूहू -कूहू
से अछूती रहती है ,
अमराई सा न हुआ तो
भी वे चलते रहते हैं
दीवाने अपने रस से
सबको तृप्त कर देते हैं ...
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteढलकते हैं
ReplyDeleteकभी उफनते हैं
खुद से लरते
हम
चलते
रहते हैं ,
ज़िन्दगी कहाँ रुकती है.... बहुत सुंदर
bhut hi sunder shabd rachna...
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