तपते हैं ग्रीष्म में शब्द मेरे
दृढ- प्रतिज्ञ शीत में ये बनते हैं
एहसासों के सावन के लिए
ये मयूर सा हरदम तड़पते हैं
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अहंकार अगर मेरे शब्दों के
राहों से मुझको भटकाती है
तू हल बनकर दर्दों को मेरे
रौंद चले तब जाती है
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मन के बंजर धरती पर
तू प्रेम-बीज बो जाती है
बीजों के पौधे बनने तक
खुशियों के बादल लाती है
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फिर सुने धरती पर मेरे
हरे घास हरियाली लाते हैं
तूफ़ान क्रोध का सहते हैं
पथिकों के मन को भाते हैं
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मन-आँगन में नित-दिन
तू ओस की मरहम लगाती है
न मुरझाये मेरी हरियाली
तू शीतलता दे जाती है
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ऐसा है बस रिश्ता तुझसे
तू मन- उपवन की खुशबू है
तू हरदम रहे युहीं खिलते
बस ये ही मेरी आरज़ू है ...
बस ये ही मेरी आरज़ू है...
बहुत खूब
ReplyDeleteआपको बुद्ध पूर्णिमा की ढेर सारी शुभकामनायें
ReplyDeletebhut khubsurat arju hai...
ReplyDeleteaapka bahut aabhaar
ReplyDeletesushma ji
sawai ji