साये के परदे हैं बस अब दामन में
क्या नूर को भी नकारता है कोई
क्या नूर को भी नकारता है कोई
जब से आया है वो शहर में यारों
लगता है ख्वाब बांटता है कोई
लगता है ख्वाब बांटता है कोई
न जाने क्या है उसका मोल साहब
दीवानागी क्यूँ आंकता है कोई
हसरते मिलने की महफ़िल से
लम्हा लम्हा हि जागता है कोई
हो न हों पूरी ख्वाईशें दिल की
खुद में खुद को ढालता है कोई
हवाएं शाख से खेलती रहती है
कहता है दिल में झांकता है कोई
बेपरवाह है ज़माना उससे पर
गुनाहगार खुद को मानता है कोई
मुफलिसी कब से दोस्त बन बैठी
उम्मीद फिर भी पालता है कोई
दिया जलाएगा वीराने में आकर
आज दिल से पुकारता है कोई
हवाएं शाख से खेलती रहती है
कहता है दिल में झांकता है कोई
बेपरवाह है ज़माना उससे पर
गुनाहगार खुद को मानता है कोई
मुफलिसी कब से दोस्त बन बैठी
उम्मीद फिर भी पालता है कोई
दिया जलाएगा वीराने में आकर
आज दिल से पुकारता है कोई
शेर सभी तो बढ़िया हैं
ReplyDeleteमगर बिना मतले के ग़ज़ल नहीं कहा जा सकता इसको!
दिन कुछ ऐसे गुजारता है कोई
ReplyDeleteजैसे एहसान उतारता है कोई
आईना देख के तसल्ली हुई
हम को इस घर में जानता है कोई
पक गया है शज़र पे फल शायद
फिर से पत्थर उछालता है कोई
फिर नज़र में लहू के छींटे हैं
तुम को शायद मुगालता है कोई
देर से गूँजते हैं सन्नाटे
जैसे हम को पुकारता है कोई
..........................
upar ke sher hain sanjay bhashkar ji ke mitra anand ji ke
maine kuch joda hai ...
puri rachna ko ek saath padhne par aisa hoga
दिन कुछ ऐसे गुजारता है कोई
जैसे एहसान उतारता है कोई
आईना देख के तसल्ली हुई
हम को इस घर में जानता है कोई
पक गया है शज़र पे फल शायद
फिर से पत्थर उछालता है कोई
फिर नज़र में लहू के छींटे हैं
तुम को शायद मुगालता है कोई
देर से गूँजते हैं सन्नाटे
जैसे हम को पुकारता है कोई
साये के परदे हैं बस दामन में
क्या रौशनी भी नकारता है कोई
जब से आया है वो इस शहर में
लगता है ख्वाब बांटता है कोई
न जाने क्या मोल है उसका
गोया दीवानगी को भी आंकता है कोई
हसरते मिलने की महफ़िल से
जैसे हर लम्हा जागता है कोई
तमन्ना पूरी हो या नहीं शायर
बेशक खुद को खुद में ढालता है कोई
....mayank daa aapka bahut aabhar truti batane ke liye ...
aur sheron ko sarahane ke liye...
bahut aabhaar..
koshish karunga..
बढ़िया
ReplyDeletebahut khoob .badhai .
ReplyDeleteखुबसुरत रचना। आभार।
ReplyDeleteखूबसूरत रचना ..
ReplyDeletebhut hi acchi panktiya...
ReplyDeleteशुक्रिया।
ReplyDeleteखुबसुरत रचना। आभार।
ReplyDeleteकोशिशें नहीं थमनी चाहिए
ReplyDeleteदिए को जलाने की
तूफ़ान भी आया तो क्या
दिल का घरौंदा
ही तेरा कायनात है
http://shayaridays.blogspot.com
Ye ghazal mitron gulzaar ji ki rachna hai...
ReplyDeleteदिन कुछ ऐसे गुजारता है कोई
- गुलजार
दिन कुछ ऐसे गुजारता है कोई
जैसे एहसान उतारता है कोई
आईना देख के तसल्ली हुई
हम को इस घर में जानता है कोई
पक गया है शजर पे फल शायद
फिर से पत्थर उछालता है कोई
फिर नजर में लहू के छींटे हैं
तुम को शायद मुघालता है कोई
देर से गूँजतें हैं सन्नाटे
जैसे हम को पुकारता है कोई ।
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ReplyDeleteहर वक़्त क्यूँ रिश्तों से भागता है कोई
ReplyDeleteक्यूँ तश्वीर दीवारों पर टाँगता है कोई
इस जहाँ में हरमोड़ पे होते हैं तजुर्बे
कहीं मिले सबकुछ दाना फाँकता है कोई
साये के परदे हैं हि रह गए दामन में
क्या नूर को भी नकारता है कोई
जब से आया है वो शहर में यारों
लगता है कि ख्वाब अब बांटता है कोई
न जाने क्या है उसका मोल ए साहब
दीवानागी को क्यूँ आंकता है कोई
हसरते मिलने की महफ़िल से रात भर
लम्हा लम्हा हर घड़ी जागता है कोई
हो न हों पूरी सुहानी ख्वाईशें दिल की
बेशक खुद में खुद को ढालता है कोई
हवाएं शाख को सहला कर चली गयीं
कहता है हँस के दिल में झांकता है कोई
ग़ाफिल है ज़माना इक अरसा गुज़र गया
गुनाहगार खुद को अब भी मानता है कोई
मुफलिसी न जाने कब से दोस्त बन बैठी
उम्मीद आँखों में फिर भी पालता है कोई
दिया जलाएगा नील आँखों के वीराने में
आज जान-ओ-दिल से पुकारता है कोई