दृष्टि है दृष्टि का क्या
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दृष्टि है दृष्टि का क्या
वो बाह्य आवरण परखती है
हरियाली कब किसी पोखर की
जीवों का जीवन रचती हैं
जलकुम्भी के झुरमुट जैसे
फैले होते हैं मिथ्या ज्ञान
सूर्य किरणों के अलौकिक सत्य से
मन उपवन को वो ढक देती हैं
दृष्टि हो बुध सी और ध्रुव सी
तो जीवन में अमृत भरती है
दृष्टि है दृष्टि का क्या
वो बाह्य आवरण परखती है
बहुत बढ़िया शेर हैं!
ReplyDeleteमगर इसे ग़ज़ल नहीं कहा जा सकता
क्योंकि असमें मतला नहीं है!
bhut khubsurat shabd rachna...
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